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गोदना कला से जुड़ा है टैटू का इतिहास, आदिवासी अंचलों में आज भी प्रचलित है

गुदना की परम्परा न केवल परंपरा से जुड़ा माना गया बल्कि यह कला जाति प्रथा को दूर करने के लिए भी उपयोग में लाई गई

बैतूल। टैटू या गोदना को न केवल कला या परंपरा से जुड़ा हुआ माना गाया है, बल्कि यह कला जाति प्रथा को दूर करने के लिए भी उपयोग में लाई गई है। कुछ सालों पहले से ही युवा पीढ़ी भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों पर अनोखे प्रकार के टैटू बनवाने में दिलचस्पी लेने लगी है। आज के दौर में टैटू फैशन के चरम पर है। इस ट्रेंड की यही खासियत है कि कपड़ों और गहनों की तरह यह बदलता नहीं है।

जिले में कार्तिक माह में ताप्ती एवं पूर्णा नदी के किनारे जगह-जगह पर मेले लगते है। इन मेलों में दूर-दूर से अपनी दुकानें लगाने के लिये दुकानदार आते है तथा दुकानदारों को इन मेलो का इन्तजार भी रहता हैं। इन मेलों में कहीं-कहीं गोदना गोदने वाले तथा टैटू बनाने वाले और बनवाने वाले नजर आ ही जाते हैं आज यह पुरातन गोदना कला ने नया स्वरूप टैटू का ले लिया है। लोक कलाओं से जुड़े महेश गुंजेले बताते हैं कि 21 वीं सदी में टैटू के नाम से प्रचलित आर्ट को प्राचीनकाल में गोदना कहा जाता था। विभिन्न प्रकार की आकृतियों को शरीर में सुई की मदद से तराशने के अत्यधिक दर्द भरे कार्य के कई भीतरी हिस्सों से लंबी यात्रा कर आज प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय फैशन का स्थान टैटू ने पाया है। गोदना का इतिहास एक अनसुलझा रहस्य है, क्योंकि शरीर में गोदाई करने के युग की शरूआत का कोई अभिलेख मौजूद नहीं हैं।

जानकारों का मानना है कि आदिवासी समुदायों के लोगों द्वारा प्रागैतिहासिक चट्टानों और दीवारों पर प्राचीन भूलभुलैया जैसी नक्काशी की नकल की गई होगी। उन्होंने प्रतिरूप बनाने की इस प्रक्रिया को गोदना कहा और चिन्हों को आभूषण के रूप में देखा। उनका मानना था कि मरने के बाद भी इस तरह के आभूषण कोई दूर नहीं कर सकता। आगे महेश गुंजेले बताते है कि हमारे देश में विभिन्न जन-जातियों में गोदना की अपनी अलग मान्यता है। टैटू या गोदना को न केवल कला या परंपरा से जुड़ा हुआ माना गया है,बल्कि यह कला जाति प्रथा को दूर करने के लिए भी उपयोग में लाई गई है।

अत्याचार के खिलाफ गोदना से भक्ति का प्रदर्शन

आज से 100 से अधिक साल पहले रामनामी लोग पहले चेहरे और शरीर को राम शब्द के साथ गोद लिया करते थे जो अत्याचार के खिलाफ भक्ति का प्रदर्शन था। उन्होने भगवान राम के प्रति अपनी गहरी आस्था और भक्ति की घोषणा करने के लिए अपने उत्पीड़कों को संदेश दिया कि प्रभु राम उनके भी हैं। तरह-तरह के  रंगों से चित्रकारी आज फैशन का पर्याय बन गई हैं। टैटू कहलाने वाली यह कला अब जनजातीय समुदाय तक ही सीमित नहीं रही हालीवुड तक इसका दीवाना हो चुका है लेकिन मामूली सी चूक इस शौक को त्वचा की सेहत के लिए घातक बना सकती हैं।

महेश गुंजेले बताते है कि गोदना के बारे में मध्यप्रदेश की गोंड जनजाति की मिथकथा में इसका जवाब हमें मिलता हैं।‘‘महादेव ने एक बार सभी देवताओं को भोज पर बुलाया गोंड देवता भी गये सभी देवताओं की पत्नियां भी गई। देवताओं की पत्नियां पार्वती को घेर कर बैठी थीं। भोजन के बाद गोंड देवता जाने लगा, उन्होने भूलवश अपनी पत्नी समझकर पार्वती के कंधे पर हाथ रखकर घर चेलने का कह दिया। पार्वती क्रोधित हो गयी। महादेव जी हंसते रहे, उन्हें मालूम था कि गोंड देवता से भूलवश ऐसा हुआ। अन्त में पार्वती ने एक उपाय सोचा, उसने देवताओं की सभी पत्नियों को अभिज्ञान के लिये गुदना अभिप्राय गुदवा दिये,तब से सभी जातियों के गुदने का चलन हुआ। ‘‘ दूसरी गोंड मिथकथा में यमराज को स्त्री और पुरूष की पहचान के लिये शरीर पर गुदने डालने पड़े थे। उन्होंने सबसे पहले अपने पुत्र और बहू के अंग पर गुदने डालने पड़े थे और बाद में उन्होंने पुत्र और बहू को मनुष्य लोक में गुदने डालने के लिये भेजा था। तीसरी मिथकथा अधिक प्रिमीटिव और प्रमाणिक है, गोंडों के बड़का देव ने तातियां बनाई, जिसे हल और नागर दिया, वह गोंड हो गये, जिसे जाल दिया वह केवट हो गये, जिसे लेखनी दी गई वह ब्राह्मण हो गये,जिसे तलवार दी गई वह क्षत्रिय हो गये,जिसे ढोल मिला वह ढुलिया हो गये। एक दिन शाम को ढुलिया घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने पेज भात नहीं बनाया। उसने पत्नी को बहुत पीटा, इससे उसकी पत्नी ने अन्न जल त्याग दिया। आठवें दिन काली माता ने दर्शन देकर उसके शरीर पर सरई वृक्ष के काले गोंद से गुदने बना दिये। इससे वह भली चंगी हो गई, तबसे प्रथा और गोदने की प्रथा का चलन हुआ। गुदना केवल शरीर का स्थायी चित्रित अलंकार ही नहीं है, वह जातीय पहचान, बीमारियों से बचाने, विषैले कीड़ों के दंश से बचने, जादुई प्रभावों और पराशक्तियों के प्रकोपों को अनुकूल करने और प्रजनन के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शरीर आलेखन अनुष्ठान के लिये भी किये जाते हैं। आगे महेश गुंजेले बताते है कि मध्यप्रदेश की प्रायः सभी जातियों में गुदने का चलन है। ग्रामीण लोक समाजों में भी गुदना गुदवाने की परम्परा है गुदना कबिलाई संस्कृति की देन है। गोत्र समाज में गुदना एक अनिवार्य अलंकरण और पहचान बन गया है। मध्यप्रदेश में लोक और आदिवासी स्त्री और पुरूष दोनों गुदने करवाते हैं। बैगा जनजाति में सबसे अधिक गुदना प्रिय है। बैगा महिलाएं पूरे शरीर पर मोटी रेखाओं से गुदना गुदवाती हैं। वे कपाल, बांह, छाती, जंघा, पिंडलियों,पीठ पर गुदना करवाती हैं। बैगाओं के गुदने मध्यप्रदेश की सभी जनजातियों से बिल्कुल भिन्न और आदिम हैं। बैगा स्त्री माथे पर व्ही आकार का चूल्हा गुदवाती हैं। मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी गोंड जनजाति मस्तक, बांह, पिंडलियों और छाती पर गुदने करवाती हैं। गोंडों के गुदने बारीक, छोटे और कलात्मक होते हैं। गोंड स्त्री मस्तक पर अर्धचन्द्र की आकृति बिन्दू सहित गुदवाती है। गोंडों के धंधा, माछी, मुरागा, बिरछा, पोथी करलिया,पुतरिया आदि गुदना के प्रभावी अभिप्राय हैं । भारिया आदिवासियों के बिन्दु आड़ी-खड़ी रेखाएं,भौहों पर धनुषाकार रेखा,मस्तक पर व्ही आकार,हाथ पर फूल,बिच्छू,पोहचे पर दौड़ी कांटा,इमली पत्ता,सांकरी,मोर,कुत्ता टिपका आदि गुदना करवाते है। कोरकू मस्तक पर एम आकार जिसे दोहरा चूल्हा कहते हैं,नाक पर बिन्दू,ठोड़ी पर तीन टिपका,हाथ पर चौक, बिच्छूपोहचे पर राम रसोई, आम, मोर, मोरमुकुट, भुजा पर बाजूबंद , सिंहासन, नागमोरी आदि गुदने करवाते है। भीलों में चिरल्या का गुदना स्त्री और पुरूष दोनों गुदवाते हैं। चिरल्या गुदना भीलों की जातीय पहचान हैं। आम, मोर ,बिच्छू, चौक, मयूर, जोड़ आदि भीलों के प्रिय गुदने हैं। सहरियाओं में सीता चौक, सीता नान्हीं, सीता रसोई, सीता बावड़ी, मूठीफूल, सिर पर अर्˜चन्द्र की आकृति गुदवाई जाती है। बस्तर की मुरिया, माड़िया, भरता, परजा आदि जनजातियां गुदना प्रिय हैं। बस्तर की स्त्रियों के बांह के गुदने सबसे सुन्दर और अर्थपूर्ण होते हैं। मध्यप्रदेश की सभी जातियों और जनजातियों में गुदने के प्रति यह विश्वास है कि मरने के बाद भी मनुष्य के साथ यही गहने स्वर्ग तक जाते है । यही शरीर के सच्चे आभूषण हैं। इसलिये प्रत्येक जनजातियों की स्त्रियां कष्टप्रद प्रथा होते हुए भी गुदना शरीर पर अवश्य धारण करते हैं क्योकि महिलाओं की मानसिक सामाजिक और आध्यात्मिक संतुष्टि बड़ा कारण गुदना चिन्हों का शरीर पर निरन्तर होना हैं।

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